Saturday 2 December 2023

परीक्षा

 उम्र की सच्ची परीक्षा किसी कमरें में बैठ किसी कोरे कागज पर नहीं देनी होती है। ये परीक्षा किसी प्रश्नों का उत्तर भी नहीं मांगती, ये परीक्षा बस सिखाती है, चलते रहना और खुद को‌ संभालें रखना।


सच्ची सीख तो वो सड़क देती है जहां से हम अपनें टूटे हुए बिखरे सपनों को समेट कर आगे बढ़ना सीखते हैं, जहां हम सब कुछ न कुछ खो चुके होतें हैं, जहां हमें ये दुनिया कभी सबसे परायी लगती तो कभी बहुत अपनी। जहां हमारे अपने पराए सब तरफ होते हैं और दूसरी तरफ हम अकेले, अपने सपनें और अपनें ज़िंदगी की परीक्षा में संघर्ष कर रहे होते हैं।


हम जानतें हैं परीक्षा हमारी है, देना हमें है, पर फिर भी हम एक आस लगाए अपनों की तरफ बार-बार देख रहे होते की कोई आए और आकर हमारी जगह हमारी परीक्षा दे दे या फिर किसी तरह हमें हमारी इस परीक्षा से बचा ले या कि वो हमारी मदद करे।


अफसोस ये ज़िंदगी अपने परीक्षा में किसी को भी नकल नहीं करनें देती और हमें हमारी परीक्षा अकेले ही देना होता है।


बात बस इतनी-सी ही है। अगर हम समझ जाए कि ज़िंदगी हमारी है, परीक्षा हमारी है हमें किसी की ओर देखना नहीं है बस अपनें रास्ते पर चलना है, यहां कोई प्रतियोगिता नहीं है किसी से।


ना कोई उत्तीर्ण या अनुत्तीर्ण होगा बस मसला है परीक्षा खुशी-खुशी देना है या रोते हुए अफसोस के साथ देना है और ये सिर्फ हम पर निर्भर करता है।

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Wednesday 2 August 2017

प्यार..??


उदासी के इस लंबे दौर में मैनें बना लिये है,मुस्कुराहटो के कुछ ठिकाने..!!
यूं तो न जाने कितनी कहानियॉ हैं इन उदासियों का हिस्सा में, जिसमे एक कहानी तुम्हारी भी तो है....!!
अपने जीवन के सबसे ख़ूबसूरत और मीठे शब्द मैंने तुम्हारे ही नाम किए थे,पर नहीं जानता था कि उसका मूल्य तुम्हारे लिये दो कौड़ी भी नहीं रहेगा! तुम्हे पाने का कभी इरादा न था,लेकिन तुम्हे खो देने के डर से मुझसे जो गलतियां हुई और उनका पूर्ण स्वीकार भी मैं करता हूं पर तुम्हारी माफ़ी नहीं पा सका। जाते-जाते जो शब्दबाण तुमने छोड़े उनसे बहुत कुछ मर चुका था मेरे भीतर। पर मैं नहीं जानता कि वह कौन-सी भावना होती है जो तुमसे लगातार मिले अपमान, तिरस्कार और व्यंगय बाणो के बावजूद खत्म होने का नाम नहीं लेता। कितना कुछ था, जो तुमसे कहना था। क्यों हमारे बीच भ्रम पैदा करने की किसी कि कोशिश को सफल होने दी..?
तुम्हे अहसास भी नहीं कि सारी दुनिया की ईर्ष्या से बचने की कवायद में तुम उससे ही ईर्ष्या कर बैठे, जिसके होंठों पर सदा तुम्हारे लिए दुआएं बसती हैं। जानता हूं प्रेम के उच्चतम तल को मैं नहीं छू पाया, इसलिए ये सारी शिकायतें हैं, ये सारे प्रश्न हैं। पर फिर भी हर रोज़ तुम याद आते हो और मैं खुद को भूल जाता हूं। शायद तुम सिखा रही हो अपेक्षाओं के पर काटना और मैं सीख रहा हूं फिर से प्यार बांटना। लम्हा-लम्हा दर्ज हो रहा है तुम्हारा दिया दर्द मन के किसी कोने में और शायद एक दिन यही सिखाएँगा मुझे सही मायनों में "प्रेम"

मैं प्रेम में था...!!

मैं प्रेम में था और उसे बांधने की कोशिश करने लगा ,मैं उसे जितना खुद से बांध कर रखना चाहता वो मुझसे उतना ही दूर होता चला गया ..... ये मेरी ,उसकी नहीं अधिकतर प्रेम को जीने वाले जोड़ों की कहानी है जब हम प्रेम में होते हैं तो अपने प्रेमी /प्रेमिका को कैद करने की भरपूर कोशिश करते हैं लेकिन उसका प्रतिफल ये होता है कि सामने वाला इंसान हमसे दूर जाने लगता है या बहुत सारी बातों को छुपाने लगता है ,प्रेम मुक्ति का दूसरा नाम है अगर आप प्रेम को जीना चाहते हैं और प्रेम पाना चाहते हैं आज़ाद कर दीजिये अपने जीवनसाथी को ,बार -बार शक करना छोड़ कर उन्हें करने दीजिये हर वो काम जिनमें वे खुश हैं ,उन पर भरोसा करिये क्योंकि प्रेम और भरोसा साथ -साथ चलते हैं अगर भरोसा नहीं है तो प्रेम भी निश्चित तौर पर नहीं है ,,एक बार आज़ाद करके,भरोसा करके देखिये आप का प्रेम और भी गहरा होगा और निश्चित तौर पर आपके प्रेम की आयु औसत से कहीं ज्यादा होगी।।
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Thursday 14 July 2016

हरवक्त मदद करो....डरो मत.!!


किसी दिन रास्ते से गुज़रते हुए सड़क पर कोई इंसान लाचार अवस्था में खून से लथपथ पड़ा हो, और हम उसके बगल से सिर्फ ये सोचकर गुज़र जाएँ कि कोई और मदद कर देगा, या मुझे इस पछड़े में नही पड़ना, या मेरे पास अभी वक़्त नही, और कुछ देर बाद आपके पास फ़ोन आये कि उसी सड़क पर उसी जगह आपके किसी अपने ने दुर्घटना में दम तोड़ दिया, क्योंकि हॉस्पिटल पहुँचाने में देरी हो गयी, या इलाज़ वक़्त पर नही मिला.
आप अंदाज़ा लगा सकते हैं कि उस वक़्त आप पर क्या बीतेगी, आपका कलेजा किस तरह फट कर बाहर आ जायेगा कि जिस घायल से किनारा करके आप अभी गुज़र गए थे वो आपका ही पिता,भाई,बहन,माँ,चाचा,बेटा था। आप मौत से बदतर ज़िन्दगी जिएंगे, और हर रोज़ पछतावे के हज़ार कड़वे घूंठ पिएंगे कि काश रुक गए होते,मदद कर दी होती, हॉस्पिटल पहुंचा दिया होता या एम्बुलैंस को एक फोन ही कर दिया होता। लेकिन फिर ये सिर्फ काश में लिपटे अफ़सोस होंगे, और कुछ नही।
भारत में पिछले 10 साल में 1 मिलियन लोग सड़क दुर्घटना में अपनी साँसें खो चुके, इनमे वो लोग नही है जो अपाहिज की ज़िन्दगी जी रहे हैं। लेकिन फिर भी क्यों भारत में आम आदमी पत्थर दिल होकर सड़क पर किसी को तड़पता छोड़ देता है? क्यों कोई किसी को कन्धा देने को आगे नही आता, जब तक कि उनको मंज़िल शमशान न हो? क्या शमशान पहुँचाने से आसान अस्पताल पहुंचाना नही होता?
दरअसल हमारे देश में घायल की मदद करने वाले शख्स को पुलिस और कानून का जो बर्ताव झेलना पड़ता है वो उसे भी नही झेलना पड़ता जिसने वो दुर्घटना को अंजाम दिया होता है। पुलिस की लंबी और तंग कर देने वाली सवाल जवाब और शक करने की प्रक्रिया, फूहड़ रवैया, अपमानजनक ढंग से बर्ताव, और इससे पहले अस्पताल पहुँचाने पर इलाज़ से पहले अस्पताल प्रशासन की लंबी चौड़ी प्रक्रिया। इन सबमे व्यक्ति को इतनी बुरी तरह से शोषित कर दिया जाता है कि मदद के लिए आगे बढे हाथ पछतावे में तब्दील हो जाते हैं।
इस समस्या के समाधान के लिए सुप्रीम कोर्ट ने 29 अक्टूबर 2014 को केंद्र को निर्देश दिए थे कि वो तीन महीने के भीतर एक आदेश लाये जिसमे सड़क पर दुर्घटना का शिकार हुए लोगों की मदद करने वालों के खिलाफ पुलिस और अस्पताल के द्वारा किये जाने वाले रवैये पर दिशा निर्देश हों।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि
1.अगर एक व्यक्ति चश्मदीद नही है और वो एक घायल को अस्पताल पहुंचाता है तो उससे कोई सवाल जवाब न किये जाये और उसे तुरंत जाने की अनुमति हो।
2.सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि जो व्यक्ति पुलिस और आपातकालीन सेवाओं को किसी घायल के सड़क पर पड़े होने की सूचना देगा उसे अपनी पहचान या निजी जानकारी देने के लिए विवश नही किया जायेगा।
3. सड़क पर घायल पड़े शख्स को अस्पताल लाने वाले व्यक्ति की निजी जानकारियां जैसे नाम और नंबर, उस व्यक्ति की अपनी इच्छा पर लिए जाएँ, यहाँ तक कि अस्पताल द्वारा भरवाये जाने वाले MLC फॉर्म पर भी।
4. यदि किसी मामले में घायल को अस्पताल लाने वाला व्यक्ति खुद अपनी इच्छा से पहल करते हुए बताये कि वो दुर्घटना का चश्मदीद है तो उससे सिर्फ एक बार सवाल जवाब किया जाएगा, 60 दिन के भीतर ये सुनिश्चित किया जाए कि मदद करने वाले को पुलिस या अदालत के द्वारा परेशान न किया जाये। बार बार तलब करने की बजाय गवाह को पहली बार की गयी वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के ज़रिये परखा जाए।
5. कोई भी पंजीकृत अस्पताल निजी या सरकारी, घायल को अस्पताल लाने वाले व्यक्ति से पैसों की मांग नही करेगा जब तक वो उसका कोई सागा संबंधी न हो, और घायल को बिना किसी देरी के तुरंत इलाज मुहैया कराया जायेगा।
हर अस्पताल अपने सालाना मुनाफे से कम ऐ कम 2% धन राशि घायलों के मुफ़्त इलाज के लिए नियुक्त करेगा।
6. सड़क दुर्घटना जैसी आपात कालीन वाली स्थिति में यदि कोई भी डॉक्टर जिसके इलाज की मरीज़ को तुरंत आवश्यकता हो यदि देरी करता है तो ये मेडिकल कॉउंसिल ऑफ़ इंडिया 2002, के 7वें अध्याय के "प्रोफेशनल मिस कंडक्ट में माना जायेगा,और अध्याय 8 के तहत उस पर अनुशासनात्मक कार्यवाही की जाये।
8. सभी निजी और सरकारी अस्पताल इन दिशा निर्देशों के जारी होने के 60 दिन के भीतर इन्हें लागू करे, वरना इनके पंजीकरण रद्द किये जाएँ।
सुप्रीम कोर्ट के इस निर्देश को 8 महीने बीत गए, लेकिन इन दिशा निर्देशों का कितना पालन हुआ है इसका जवाब या तो केंद्र सरकार दे सकती है, या अस्पताल या फिर घायलों को अस्पताल लाने वाले राहगीर, और अगर कोई नही तो खुद सड़क पर दम तोड़ते घायल।

Friday 20 May 2016

दोस्ती क्या है‬ ???


कल किसी ने मुझसे कहा दोस्ती एक उम्र वाले से होता,आप बहुत बड़े हो..!! मैं भी सोच मे पड़ गया और इसका जवाब ढुढ़ने लगा | दोस्ती को ले कर बहुत सारे विद्वानो ने बहुत कुछ लिखे | मैनें भी अपने कुछ दोस्तो से पुछा पलट कर उनसबों का हसँता हुआ मजाकिया जवाब ..क्या यह ही दोस्ती हैं..?
मेरी नज़र में दोस्ती जैसे रिश्ते को कभी शब्दों में ढाल कर व्यक्त नहीं किया जा सकता..यानि कुल मिलाकर दोस्ती रिश्ता एक ,रूप अनेक जैसा लगा.. दोस्ती के इस एक रिश्ते में न जाने कितने रंग छिपे हैं ज़िंदगी के...!! तभी तो है यह दोस्ती है एक प्यार सा बंधन ... फिर भी कुछ लोगों का ऐसा मानना है कि एक लड़का और एक लड़की कभी अच्छे दोस्त नहीं हो सकते ... यदि उनमें दोस्ती है भी तो आगे जाकर उनकी यह दोस्ती प्यार में बदल ही जाती है ......
सच है , प्यार दोस्ती है मगर प्यार का भी तो केवल एक ही रूप नहीं होता ना ... मेरा मतलब यहाँ सिर्फ दोस्ती से है फिर चाहे वो लड़के लड़की हो या लड़कों-लड़कों की हो या फिर दो सहेलियों की, दोस्ती में जो एहसास जो जज़्बात आप महसूस करते हैं वही एहसास कोई अगला व्यक्ति तभी महसूस कर सकता है जब उसने भी अपने जीवन में कोई सच्चा दोस्त बनाया हो , या पाया हो ... क्यूंकि दोस्त वो है जो ज़िंदगी के हर मोड़ पर आपका साथ दे फिर चाहे आप थोड़ा बहुत गलत ही क्यूँ ना हो , वैसे तो दोस्त का काम है आपका सही मार्ग दर्शन करना ......
दोस्ती या दोस्त एक ऐसा शब्द जिसके ज़हन में आते ही आपके होंठों पर स्वतः ही एक मधुर मुस्कान आ जाती है ... शायद इसलिए दुनिया में दोस्ती से अच्छा और सच्चा दूजा कोई रिश्ता नहीं क्यूंकि बाकी रिश्ते तो हमें विरासत में मिलते हैं मगर दोस्त हम खुद चुनते है | वैसे यह बात काफी घिसी पिटी सी लगती है ... मगर सच तो यही है और मुझे यह रिश्ता बहुत पसंद है क्यूंकि इसमें कोई भेद-भाव नहीं होता ... अगर कुछ होता है तो वो है सिर्फ दोस्ती आपसी समझ जो एक सच्चे और अच्छे दोस्त की सबसे पहली निशानी होती है और सबसे अहम बात तो यह होती है कि दोस्ती वो रिश्ता है जिसे कभी जबरदस्ती नहीं निभाया जा सकता ... खैर अच्छे दोस्त तो फिर भी बहुत आसानी से मिल जाते है इस दुनिया में , मगर सच्चा दोस्त बहुत ही किस्मत वालों को बड़े नसीब से मिल पाता है ... दोस्त इसलिए कहा क्यूंकि सच्चा दोस्त केवल एक ही व्यक्ति हो सकता है क्यूंकि दोस्तों के समूह के नाम पर भले ही आपके गिने चुने दोस्त हों मगर उन सब में से भी कोई एक ऐसा ज़रूर होता है जिसे आप बाकी सभी दोस्तों की तुलना में अपने आप से ज्यादा करीब महसूस करते है .......
सच ही कहते हैं लोग आदमी नाते रिश्तेदारों के बिना एक बार ज़िंदा रह सकता है मगर दोस्तों के बिना नहीं ... दोस्तों की ज़रूरत तो हर कदम पर पड़ती है,...हाँ ..!! यह बात अलग है कि कुछ दिल के करीब होते हैं तो कुछ सिर्फ कहने के लिए ... मगर हमारी ज़िंदगी में आने वाला हर इंसान हमें कुछ न कुछ ज़रूर सिखा जाता है इसलिए दुनिया के सभी दोस्तों को और दोस्ती के इस पावन रिश्ते को मेरा सलाम ...…🙏🙏~~®®®~~

Friday 5 February 2016

जिंदगी का एक पन्ना और "मेरी पसंद"

"दे दो..
भगवान के नाम मे कुछ दे दो,  
भगवान आपका भला करेगा  
ओर ‘चाय-चाय…गरम चाय’ के शोर से मेरी नींद टूटी, बगल में बैठे सज्जन बोले ‘भाई साब आप तो गहरी नींद में सो गए थे’, 
मैं भी मुसुकुराते हुए जंभाई लेता हुआ खड़ा हुआ..!!
"जी हाँ", अंदाज़ा लगा चुके होंगे आप सब कि मैं एक रेलगाड़ी पर था। 2015 के अगस्त महीना मे मुझे  परीक्षा के लिये पटना से मम्बई से कटक जाना पड़ा.. नाशिक कुम्भ मेला ओर परीक्षार्थी के कारण टिकट की मारा मारी में मुझे अपने गंतव्य स्थान के लिये आर•ए•सी का ही टिकट मिल सका। सुबह के 10 बजे रहे थे,ट्रेन नागपुर मे पहुची ही थी,आगे के सफर को पुरा करने के लिए मैंने एक मैगज़ीन ख़रीदी और  धुप का मज़ा लेते हुये चाय की चुस्कियाँ के साथ उसे पढ़ने लगा।
भारत में एक दो रुपये का अखबार आपका परिचय रेल की आधी बोगी से करा देता है। फिर मैंने तो पत्रिका खरीदी थी, अगले ही पल एक सज्जन पास आये और बोले...
‘भाई साब, क्या मैं यहाँ बैठ सकता हूँ?’
मैंने हामी में सिर हिलाया और वो बैठ गए, थोड़े मिलनसार थे, अगले ही पल मैं जान गया कि वो भी विधार्थी है और मेरी ही तरहा परीक्षा यात्रा पे निकला हुआ था। चूँकि दोनों को कटक ही जाना था तो जान-पहचान जल्दी ही मित्रता में बदल गयी।
जिस सवाल का इंतज़ार मैं कर रहा था वो भी उन्होंने जल्दी ही पूछा...
 ‘भाई आपने पत्रिका पढ़ ली हो तो मैं देख लूँ?’
“10 मिनट पहले लाया हूँ, नहीं दे पाऊंगा, आप अपनी क्यूँ नहीं खरीद लेते? अजीब आदमी हैं” जैसी बातें दिमाग में लाने के बाद जबान से इतना ही निकल पाया
‘जी बिलकुल, ये भी कोई पूछने वाली बात है, आप पढ़िये आराम से’।
इन सज्जन का इस कहानी से कोई लेना देना नहीं है, ये मेरी थोड़ी गुस्सा मात्र थी, अब मुद्दे पर आता हूँ। उस भिखारी बाबा की आवाज़ से जब मेरी नींद खुली तो मेरी नजरे एक बच्चे को बड़ा सा बैग घसीटते हुए बोगी मे चढ़ते देखा, बैग वही पहियों वाला, बच्चे को देख चेहरे पर हल्की मुस्कान आई ही तभी उसके पीछे कुछ ऐसा दिखा जिसने मेरी हृदयगति रोक दी। काले रंग के पटियाला सूट में एक लड़की के प्रवेश ने दिन के शोरगुल मे सन्नाटा ला कर आग लगा दी थी, चेहरे पर हल्की सी घबराहट पर ओढ़ी हुई मुस्कान, एक हाथ से अपने हैण्ड बैग को संभाल दुसरे से बच्चे को पकड़ने की कोशिश,
क्या यात्री..!!, क्या चाय वाला..!!, क्या भिखारी...!! उस लड़की ने सबको अपनी ओर आर्कषित कर दी थी। इंद्र की सभा की अप्सराओं का जो सबसे बेहतरीन काल्पनिक दृश्य मेरे दिमाग़ में था उससे शायद 100 गुना ज्यादा ख़ूबसूरत। नहीं, मैं शब्दों से संतुष्ट नहीं हूँ, वो और ज्यादा ख़ूबसूरत थी, खुबसुरती भी कैसी, जिसे किसी श्रृंगार की जरुरत ना हो। मैं अकस्मात उसे देखता रहा, लिहाज़ भूल गया कुछ पलों के लिए।
(अरे आप सब ज्यादा सोचना मत लड़को का ये ठरकपन जन्म जात मिला हैं)
कौन है ये? कहाँ से आई है? वो भी अकेली..! ये बच्चा कौन है? इतना बड़ा इसका तो होगा नहीं, भाई होगा शायद, या कोई रिश्तेदार? जैसे तमाम सवालों ने मुझे घेरा ही था कि उस बच्चे की आवाज़ ने सन्नाटा तोड़ा ‘अंकल, क्या हम यहाँ बैठ सकते हैं?’
(अंकल? अबे मैं 22 साल का हूँ? पागल है क्या?...ये बातें सिर्फ मन मे ही उठा..!! )
‘अरे बिलकुल बैठो यार’
(अब आप समझ गए होंगे वो मैगजीन वाले भाई को मैंने ‘सज्जन’ कह क्यूँ संबोधित किया, सही मौके पर वो सीट छोड़ कहीं चले गए थे)
मेरे हामी भरते ही वो दोनों वहां बैठ गए, जब आप अकेला कहीं सफर कर रहे हो और जब आप ये सोच रहे हों कि कैसे वक़्त कटेगा तो ऐसा हसीन हादसा आपको मन ही मन ये सोचने को मजबूर कर देता है कि ‘काश, ये समय यहीं रुक जाता’। मैं असमंजस में था कि कैसे बात करूँ इतने में ही वो बच्चा बोल पड़ा
‘अंकल, मुझे सुसु जाना है, टॉयलेट तक ले चलोगे क्या?’
‘जरुर ले चलूँगा, पर पहले आप मुझे अंकल बोलना बंद करो’
(आम तौर पर मैं ऐसा हूँ नहीं, पर जब दुनिया की सबसे ख़ूबसूरत लड़की आपके बगल में हो तो भाषा शैली में परिवर्तन लाज़मी है)
‘ठीक है, भैय्या बोलता हूँ फिर’
लड़की भी जरा सा मुस्कुराई, वो होती है ना.. ज़माने से छुपाने वाली मुस्कराहट, जब एक खुबसूरत लड़की इस क्रिया को करती है तो कुछ बात होती है ,क्या होती है..? मुझे भी नही मालूम बस आप कुछ भी समझ लीजिये। 
“और छोटू, अकेले कहाँ जा रहे हो”
“अकेला कहाँ, दीदी हैं ना’
मैंने राहत की सांस ली..ऐसा आप कह सकते हैं, भारत ‘आशावादियों’ का देश है, जिस लड़की से मैंने बात नही की, एक बार देखा है, वो शादीशुदा है इस ख़याल ने कुछ समय तक मुझे विचलित किया था।
खैर टॉयलेट से वापिस आने पर हम फिर अपने बर्थ पर बैठ गए, वो लड़की बर्थ पर पड़ी मेरी मैगजीन पढ़ रही थी। मन में खयाल आया इससे अच्छा तो वो लड़का था, कम से कम पूछा तो था उसने। बहरहाल लड़कियों में जरा सी ऐंठ खूबसूरती और बढ़ा ही देती है, लड़के ये प्रयोग कदापि ना करें।
बहुत देर से ‘चाय-चाय’ चिल्ला रहे लड़के को भी मैंने रोक ही लिया,
भाई चाय पिला दो, आप लोग पियेंगे?
उधर से कोई जवाब नही मिला, हाँ बच्चे ने ‘ना’ में सिर हिला दिया। अब सब्र का बाँध टूट रहा था, मेरी बर्थ पर बैठी..मेरी मैगजीन पढ़ी, इसके भाई को मैं टॉयलेट करा लाया, चाय पूछा, कुछ नहीं तो ना बोल के एक शुक्रिया तो बनता ही था।
‘आपकी दीदी बोलती नहीं क्या?’
(हिम्मत जुटा कर इतना बोल पाया)
ज़वाब बेहद सीधा, सरल और चौंका देने वाला था
(तब लड़की की आवाज आई..)
‘हां, दीदी बोल नही सकती’क्या??
ये हो नही सकता, ऐसा करने से पहले भगवान भी 10 बार सोचेगा....

नज़रें देख तो रही थी पर दिमाग उस बात पर विश्वास करने से इनकार कर रहा था, मुग़ल काल में संगेमरमर की तराशी हुई मूर्ति क्या ही उसकी खुबसूरती के आगे टिकती। दिल बैठ गया था, मगर क्यूँ? क्या रिश्ता था हमारा? मिले हुए आधे घंटे भी तो नहीं हुए थे।
एक ख़ूबसूरत लड़की का सबसे बड़ा गहना होता है उसकी ‘सादगी’, शायद यही उसकी चुम्बकीय व्यक्तित्व का सबसे बड़ा कारण था। वो रेलगाड़ी जो दो मिनट पहले तक दुनिया की सबसे ख़ूबसूरत जगह लग रही थी वो अचानक बेगानी सी दुनिया मालूम पड़ने लगी। वक़्त ठहर गया था, उसने अपनी पलकें झुकाये रहते हुये मेरे मुरझाये चेहरा को देखी और हल्के से मुस्कुरा दी।
(पता नहीं भगवान ये कला लड़कियो में ही क्यो दी)
शायद वो कुछ कहना चाहती थी लेकिन मुझे सांत्वना की जरुरत नहीं है, मैं भी अपनी मम्मी की दुलारी बेटी हुँ।(क्योंकि मेरी कोई बहन नहीं हैं !!)

कुछ बोल तो नहीं सका पर उसकी तरफ देख हाव भाव के माध्यम से मैनें माफ़ी मांगी, जिसे उसने अपनी दुनिया भुला देने वाली मुस्कराहट से स्वीकार किया। ये वो पल था जब मैं शायद अपने निजी जीवन की सभी समस्याओं को भुला चुका था, गुस्सा आने पर मन की भड़ास शब्दों के माध्यम से निकाल कर हमसब शांत हो जाते हैं। दिमाग में हज़ारों प्रश्न लिए मैं बेबाक उसकी तरफ देखे जा रहा था, शर्म..लिहाज़..मानों कहीं खो गया था, लेकिन मैं ऐसा व्यक्ति  नहीं हुँ जो मैं इस पात्र मे लग रहा हूँ।
तभी ट्रेन के तेज़ हॉर्न ने पुरे बोगी को फिर से जगा दिया, हॉर्न की आवाज़ सुनते ही भाई बहन विचलित हो उठे। समझते देर ना लगी की ये उनकी ही स्टेशन हैं जहॉ उसे उतरनी थी, मैंने बड़े हक़ से उनका सामन उठाया और उस बच्चे के साथ (जिसके कारण कब का 2 घंटा बीत गया पता ही नहीं चला ) गेट की ओर बढ़ने लगा। गाड़ी खड़ी होते ही मैंने फटाफट उनका सामान नीचे  उतरवा दिया ।शायद कुछ 45 सेकण्ड्स रह गए थे मेरे पास, और देखना चाहता था उसे, पर ट्रेन अब दुबारा हॉर्न दे रही थी, धड़कने तेज़ हो गयी थी जो गाड़ी के एक इंच खिसकते ही और तेज़ हो गयी।
वाह जिंदगी और उसका रोमांच, जिसको मैं जानता नहीं था उसकी जाते देख मेरे चेहरे का रंग उड़ चुका होता .. ये शायद जिंदगी के सबसे रोमांचक दो घंटे थे। बच्चा बैग घसीटता हुआ ट्रेन से दुर जा रहा था, तभी जोर से एक आवाज़ आई ‘थैंक्यु जी'
ना, मैं प्रयत्न भी नहीं करूँगा, उस पल मेरी जो मानसिक हालत थी उसे शायद शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता है। जी, आप ठीक समझे ये बच्चे की नहीं, उस लड़की की आवाज़ थी।
भागूं, ट्रेन से नीचे जाऊं, जोर से चिल्लाऊं, क्या करूँ? उसके ‘थैंक्यु जी’ का जवाब मैं उसी के अंदाज़ में अपनी मुस्कराहट से दे पाया। हम दोनों शायद 15 सेकंड तक एक दुसरे को देख मुस्कुराते रहे और गाड़ी स्टेशन से आगे निकल गयी। उस दिन ये समझ आया कि ‘जज्बात’ से बड़ी भाषा कोई नहीं होती, उन 15 सेकंड में बिना बोले मैंने वो हर बाद कही जो मैं पिछले 2 घंटे से कहना चाहता था, और शायद उसने समझी भी।

‘अरे ये क्या ' ..!! उसी समय मेरी मोबाईल की रिंग भी बजने लगी थी  |
इस फोनवाली को कैसे मालुम चला की मेरा ध्यान कहीं ओर है , इसकी प्यारी आवाज़ से मेरा ध्यान उस बच्चे से एकदम हट गया लगा कुछ हुआ ही नहीं था.. 
मेरी पसंद तो फोनवाली ही हैं शायद फोनवाली को नहीं मालुम हैं !!  मैं अब भी फोनवाली को बहुत याद करता हुँ....!! 
जिंदगी का एक पन्ना आपके समक्ष रखा हुँ..!!

Sunday 3 January 2016

माँ..


वो मेरी ख़ुशी में 
खिलखिलाती है..
वो मेरे ग़म में,
आंसू बहाती है..
टूटने लगु किसी बात पर
वो हौसला बढ़ाती है...
भटक जाऊं अगर राह छोड़कर
वो रास्ता दिखाती है...
वो जान भी ले अगर मैं गलत हूँ इसबार,
वो मेरी अच्छी बाते सबको बताती हैं
वो खुदा है मेरी,वो भगवान है मेरी
उसे मेरी कोई गलती नज़र नही आती है,
किसी रोज़ बस एक निवाला कम खा लूँ तो,
वो ज़िद में छोटी बच्ची बन जाती है,
वो मानती है उसकी दुनिया हूँ मैं,
                                                                                   पर माँ..
                                                                                   तुझमे मुझे अपनी पूरी दुनिया नज़र आती है...